दीये बनाने की कला – राँची में परंपराओं को जीवित रखते हुए 🪔✨
पाठ और फोटो – अशोक करण
जैसे-जैसे दीपावली करीब आती है, राँची के कुम्हार सुंदर मिट्टी की कृतियों को आकार देने में व्यस्त हो जाते हैं — पारंपरिक दीयों और लालटेनों से लेकर माँ लक्ष्मी और भगवान गणेश की मिट्टी की छोटी मूर्तियों तक। इन हस्तनिर्मित रचनाओं से सजे बाज़ार अब उजाला, समृद्धि और श्रद्धा के प्रतीक के रूप में जगमगाने लगे हैं।
हालाँकि, इस वर्ष मौसम ने कुम्हारों के लिए नई चुनौतियाँ खड़ी कीं। लगातार वर्षा और नमी के कारण मिट्टी के दीयों को सूखाने और पकाने में कठिनाइयाँ आईं। फिर भी राँची के कुम्हारों का उत्साह और समर्पण कम नहीं हुआ।

राँची की मिट्टी कला – परंपरा और आधुनिकता का संगम
राँची में कई मिट्टी उत्पादक और व्यापारी हैं, जो पारंपरिक टेराकोटा (Terracotta) और आधुनिक सिरेमिक डिज़ाइन दोनों में निपुण हैं। हैप्पी मट्टी, रौनक आर्ट्स और राज सिरेमिक्स जैसे प्रसिद्ध नाम पुरातन कला को सहेजते हुए आधुनिक ग्राहकों की पसंद के अनुसार काम कर रहे हैं।
यहाँ की मिट्टी कला केवल सजावटी नहीं, बल्कि उपयोगी भी है — घर की सजावट, बागवानी और रसोई के बर्तनों तक। कई कलाकार अब पर्यावरण-अनुकूल विधियाँ अपनाकर और ऑनलाइन बिक्री मंचों से जुड़कर अपने काम को अधिक लोगों तक पहुँचा रहे हैं।

राँची के प्रमुख मिट्टी कला केंद्र:
- 🏺 हैप्पी मट्टी – हस्तनिर्मित मिट्टी कला और डेकोर के क्षेत्र में अग्रणी नाम।
- 🏺 रौनक आर्ट्स – अपने अनोखे टेराकोटा और सिरेमिक कला कार्यों के लिए प्रसिद्ध।
- 🏺 क्ले पॉट डीलर्स – हरमू रोड और कांके रोड पर स्थित, जो मिट्टी के बर्तन और पौधों के गमले बेचते हैं।
- 🏺 राज सिरेमिक्स – पारंपरिक और आधुनिक दोनों प्रकार के डिज़ाइनर दीयों में विशेषज्ञ।
- 🏺 प्रजापति मट्टी मेगा मार्ट – रंग-बिरंगे और आकर्षक त्योहारों के दीयों के लिए प्रसिद्ध।
ये संस्थान न केवल सांस्कृतिक विरासत को सहेजते हैं, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाते हुए कई लोगों को रोजगार भी प्रदान करते हैं।

पारंपरिक दीया निर्माताओं की चुनौतियाँ
कला और मेहनत के बावजूद ग्रामीण कुम्हार अनेक कठिनाइयों से जूझ रहे हैं:
- 💡 बाज़ार में सस्ते इलेक्ट्रिक लैंप और प्लास्टिक लाइटों की भरमार से मिट्टी के दीयों की माँग घटी है।
- ⏳ एक दीये को तैयार करने में लगभग 48 घंटे लगते हैं, परंतु उसकी कीमत बहुत कम मिलती है।
- 💰 कच्चे माल की बढ़ती लागत और आर्थिक सहयोग की कमी से जीविका कठिन हो गई है।
- 😷 पारंपरिक भट्ठों से उठने वाला धुआँ कलाकारों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
- 👨👩👧 युवा पीढ़ी कम आय और कठिन कार्य परिस्थितियों के कारण इस पेशे में रुचि नहीं दिखा रही।
- 🏭 दीपावली के समय बड़े उद्योगों को अधिक लाभ मिलता है, जिससे ग्रामीण कारीगर पीछे रह जाते हैं।
स्थानीय कुम्हार करण कुमार प्रजापति बताते हैं कि वे 100 दीयों का सेट ₹150 में बेचते थे, पर इस वर्ष भारी वर्षा के कारण कीमत ₹200 करनी पड़ी। वे लक्ष्मी-गणेश की मिट्टी की मूर्तियाँ और रंगीन आकृतियाँ भी बनाते हैं, जिनमें कुछ डिज़ाइन बंगाल और असम से प्रेरित हैं।
आज कई कुम्हार पारंपरिक हाथ से चलने वाले चाक की जगह इलेक्ट्रिक चाक का उपयोग करने लगे हैं, जिससे कार्य की गति बढ़ी है, पर हस्तकला की आत्मा अब भी जीवित है।

नवाचार और आशा – उजाले की नई राह
कठिनाइयों के बीच नवाचार और उम्मीद की किरणें भी दिखती हैं:
- 🌟 छत्तीसगढ़ के अशोक चक्रधारी ने ऐसा दीया बनाया है जो लगातार 24 घंटे जलता है — पारंपरिक कौशल और वैज्ञानिक सोच का सुंदर संगम।
- 🌆 मुंबई के धारावी के कुम्हारवाड़ा में गुजरात से आए कुम्हारों ने एक समृद्ध समुदाय बनाया है, जो हर दीपावली हजारों हस्तनिर्मित दीये तैयार करता है।
- 🌾 पश्चिम बंगाल के रायदीघी गाँव की महिलाएँ आज अपने परिवारों की आजीविका के लिए दीया निर्माण कर रही हैं।
- ⚙️ उत्तर प्रदेश की माटी कला बोर्ड कुम्हारों को इलेक्ट्रिक चाक, मशीनें और बैंक ऋण उपलब्ध कराकर इस कला को टिकाऊ बना रही है।
कई संगठन और जागरूक उपभोक्ता अब स्थानीय हस्तनिर्मित दीयों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे कारीगरों की आजीविका सुरक्षित हो और भारत की सांस्कृतिक धरोहर सहेजी जा सके। स्वयं हमारे प्रधानमंत्री भी स्थानीय और हस्तनिर्मित उत्पाद खरीदने का संदेश दे चुके हैं, ताकि मेहनती कारीगरों के घरों में भी उजाला फैले।
चित्रों में – राँची की सड़कों के किनारे मिट्टी के दीये बनाए, रंगे और सुखाए जा रहे हैं।
आइए, इस दीपावली हम हस्तनिर्मित दीयों को अपनाएँ — ताकि रोशनी सिर्फ़ हमारे घरों में नहीं, बल्कि उन कारीगरों के जीवन में भी फैले जिन्होंने इन्हें प्रेम से बनाया है। ✨
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