बीड़ी
मज़दूर – असंगठित उद्योग की अदृश्य रीढ़
पाठ्य व चित्र: अशोक करण
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ashokkaran.blogspot.com
मध्य
बिहार में एक असाइनमेंट
के दौरान मुझे बिहारशरीफ (नालंदा
ज़िला) में बीड़ी मज़दूरों
की वास्तविक स्थिति को नज़दीक से
देखने का अवसर मिला।
यह अनुभव हृदय विदारक था—एक ऐसा उद्योग
जो वंचितों की मेहनत, संघर्ष
और पीड़ा पर टिका हुआ
है, जहां कार्य पूरी
तरह असंगठित और खंडित ढांचे
में होता है।
बीड़ी
उद्योग मुख्यतः असंगठित क्षेत्र में कार्य करता
है और इसे तीन
मुख्य श्रेणियों में बांटा जा
सकता है:
- तंबाकू उत्पादक – जो प्रायः किसान होते हैं।
- केन्दु पत्ता संग्रहकर्ता – अधिकतर आदिवासी व वनवासी समुदायों से आते हैं।
- बीड़ी बनाने वाले मज़दूर – घरों में कार्य करने वाली महिलाएँ, जो हाथों से केन्दु पत्तों में तंबाकू भरकर बीड़ी बनाती हैं।
इन मज़दूरों—विशेष रूप से महिलाओं—को बहुत कम
मजदूरी मिलती है, वे अधिक
समय तक कार्य करती
हैं और असुरक्षित रहती
हैं। अधिकतर अशिक्षित होती हैं और
इन्हें श्रम अधिकार या
कल्याणकारी योजनाओं की जानकारी नहीं
होती। वे छोटे, बिना
हवादार कमरों में लंबे समय
तक काम करती हैं,
तंबाकू की धूल में
सांस लेती हैं और
शारीरिक कष्ट सहती हैं—सिर्फ अपने परिवार को
थोड़ा–बहुत सहारा देने
के लिए।
बीड़ी
मज़दूरों को होने वाले प्रमुख स्वास्थ्य जोखिम:
• तंबाकू
की धूल से दमा,
ब्रोंकाइटिस और टीबी जैसी
बीमारियां।
• लंबे समय तक एक
ही स्थिति में बैठने से
पीठ, गर्दन और जोड़ो में
दर्द।
• त्वचा में खुजली और
आंखों में जलन।
• लगातार सिरदर्द, चक्कर आना और खून
की कमी (एनीमिया)।
• बाल मज़दूरी का उच्च स्तर,
जिससे बच्चों का स्वास्थ्य और
शिक्षा दोनों प्रभावित होते हैं।
• गंदे और असुरक्षित कार्यस्थलों
में कार्य करना।
• ठेकेदारों द्वारा शोषण और श्रम
कानूनों की अनुपलब्धता।
बढ़ती
जनसंख्या और बेरोज़गारी के
कारण यह उद्योग आज
भी वयस्कों और बच्चों—दोनों
को अपने दायरे में
ले रहा है। कई
क्षेत्रों में 80-90% कार्यबल महिलाएं होती हैं, खासकर
गुजरात (अहमदाबाद), मध्य प्रदेश, आंध्र
प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के
कुछ हिस्सों में।
बीड़ी
को अक्सर “गरीबों की सिगरेट” कहा
जाता है, पर यह
न सिर्फ उपभोक्ता बल्कि निर्माता के लिए भी
विनाशकारी होती है। एक
बीड़ी में केवल 0.2 ग्राम
तंबाकू होता है, लेकिन
उसकी गहराई से की गई
खपत उसे सिगरेट से
8 गुना अधिक हानिकारक बनाती
है।
भारत
का सबसे बड़ा बीड़ी
निर्माता, मैंगलोर गणेश बीड़ी वर्क्स, प्रतिदिन लगभग 13 करोड़ बीड़ियाँ बनाता है, जिसकी आपूर्ति
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
होती है। यह कंपनी
हर दिन लगभग ₹20 लाख
मज़दूरों और वितरकों को
देती है, पर ज़मीनी
हकीकत में सबसे नीचे
काम करने वालों के
लिए हालात अब भी कठोर
हैं।
कानूनी
ढांचा – बीड़ी और सिगार मज़दूर अधिनियम, 1966:
यह अधिनियम उद्योगिक परिसरों में स्वच्छता, सफाई
और सुरक्षित कार्यस्थलों की बात करता
है। लेकिन चूंकि अधिकांश बीड़ी मज़दूर घर या सड़क
किनारे काम करते हैं,
इसलिए इन कानूनों का
पालन शायद ही कभी
होता है। नीतियों और
ज़मीनी हकीकत के बीच की
यह दूरी मज़दूरों के
शोषण और उपेक्षा को
जारी रखती है।
बदलाव
की पुकार:
बीड़ी
मज़दूरों के जीवन को
बेहतर बनाने के लिए बहुआयामी
उपायों की आवश्यकता है:
• बेहतर श्रम मानक और
कार्य स्थितियों को लागू करना।
• स्वास्थ्य सेवाएं और सामाजिक सुरक्षा
प्रदान करना।
• स्वास्थ्य और अधिकारों पर
जन–जागरूकता अभियान चलाना।
• बाल मज़दूरी पर रोक और
शिक्षा पर ज़ोर देना।
• प्रभावित परिवारों के लिए वैकल्पिक
आजीविका के अवसर उपलब्ध
कराना।
हर बीड़ी के पीछे एक
कहानी होती है—संघर्ष,
सहनशीलता और जिजीविषा की।
आइए उन हाथों की
आवाज़ बनें जो इन
बीड़ियों को चुपचाप बनाते
हैं।
चित्र
विवरण:
- Workers making Beedis in group
- एक बीमार बीड़ी मज़दूर।
- दीवार पर लिखे हुए बैनर।
- बीड़ी बनाने की क्लोज़अप तस्वीर।
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