राजमहल
पहाड़ियों की मूक पुकार

लेखक: अशोक करन
ashokkaran.blogspot.com

झारखंड
के साहिबगंज ज़िले की दूरदराज़ राजमहल
पहाड़ियों से होकर गुजरते
समय मन में गहरी
पीड़ा उत्पन्न हुई। जहाँ एक
समय प्रकृति की निर्मल सुंदरता
देखने को मिलती थी,
आज वहाँ अनियंत्रित पत्थर
क्रशिंग और खनन की
गहरी चोटें दिखाई देती हैं। कभी
प्रकृति का अद्भुत चमत्कार
मानी जाने वाली ये
पहाड़ियाँ अब तेज़ी से
अपनी पहचान खो रही हैंनिर्माण उद्योग की भूख का
शिकार बनती जा रही
हैं।

ये पहाड़ियाँ, जो भूवैज्ञानिक धरोहर
से समृद्ध हैं, लगातार तोड़ी
जा रही हैं ताकि
भवन निर्माण सामग्री, विशेषकर व्यापक रूप से इस्तेमाल
होने वालेपाकुड़ चिप्सका उत्पादन किया
जा सके। पत्रकार ब्रजेश
वर्मा जी के अनुसार,
ये चिप्स झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल
के हिस्सों में, विशेषकर रेलवे
और सड़क परियोजनाओं में
बड़े पैमाने पर उपयोग किए
जाते हैं।

लेकिन
इस विकास की आड़ में
एक गंभीर चिंता छिपी हैवह
है सुरिया पहाड़िया आदिवासी समुदाय का अस्तित्व संकट,
जिन्हेंविशेष रूप से कमजोर
जनजातीय समूह” (PVTG) के रूप में
वर्गीकृत किया गया है।
सदियों से यह समुदाय
प्रकृति के साथ सामंजस्य
में जीवन व्यतीत करता
आया हैमिश्रित खेती,
वनों से प्राप्त उत्पादों
और पहाड़ी जलस्रोतों पर निर्भर रहकर।
आज उनकी जीवनशैली पर्वतों
में लगातार होने वाले विस्फोटों,
तेज़ कंपन, वायु प्रदूषण और
उनके घरों के नज़दीक
गिरते चट्टानों के कारण टूटने
लगी है।

अलवा,
अमजोला, गुर्मी, पंगडो, धोकोटी, बेकचुरी और मालटो जैसे
गाँव इन पहाड़ियों में
बिखरे हुए हैं, जहाँ
छोटी लेकिन दृढ़ जनसंख्या निवास
करती है। केवल मालटो
गाँव में ही लगभग
30 सुरिया पहाड़िया परिवार सूखते जलस्रोतों, गिरते भूजल स्तर और
सिकुड़ते वन संसाधनों से
जूझ रहे हैं।

एक बुजुर्ग आदिवासी ने कहा, पहाड़ियों
के पास रहना कभी गर्व की बात थी। अब यह रोज़ की जद्दोजहद बन गया है।

और भी चिंताजनक बात
यह है कि राजमहल
पहाड़ियों का पारिस्थितिक और
वैज्ञानिक महत्व बहुत अधिक है।
विशेषज्ञों का मानना है
कि 2,600 वर्ग किलोमीटर में
फैली ये पहाड़ियाँ लगभग
6.8 से 11.8 करोड़ वर्ष पुरानी हैं,
और भारत की सबसे
पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से हैंशायद केवल अरावली
के बाद। इन पहाड़ियों
में छिपे जीवाश्म (फॉसिल)
विज्ञान के लिए अमूल्य
हैं, लेकिन ये खनन के
कारण खतरे में पड़
गए हैं।

हालांकि
सरकार द्वारा जीवाश्म संरक्षण की कुछ पहलें
की गई हैं, लेकिन
यह क्षेत्र अब भी खनन
गतिविधियों से बुरी तरह
प्रभावित है। केवल साहिबगंज
ज़िले में ही क़रीब
180 वैध खानें और 450 से अधिक पत्थर
क्रशर हैंऔर अवैध
खनन को लेकर भी
गंभीर चिंताएँ हैं।

यह केवल एक आदिवासी
समस्या नहीं है। यह
एक पर्यावरणीय संकट है। एक बार
अगर कोई पहाड़ी या
पर्वत नष्ट हो जाए,
तो वह कभी वापस
नहीं सकता।
ही कोई पुनर्निर्माण,
ही कोई मुआवज़ा इसकी
भरपाई कर सकता है।

राजमहल
की यात्रा के दौरान मैंने
केवल मशीनें और क्रशर नहीं
देखेबल्कि एक मौन चेतावनी
देखी: अगर हमने अपने
प्राकृतिक धरोहर का ऐसा ही
दोहन जारी रखा, तो
इसकी क़ीमत आने वाली पीढ़ियाँ
बहुत भारी चुकाएँगी।

आइए,
इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, हम सब अपनी आवाज़ उठाएँ।


तस्वीरों
में:

  1. खनन से उजड़ती राजमहल पहाड़ियाँ।

  2. राजमहल क्षेत्र में काम करते पत्थर क्रशर।

📷✍️ लेख और चित्र: अशोक करन



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