लोहार की कहानी: परंपरा और शिल्प कौशल की विरासत
रांची की मुख्य सड़क पर चलते हुए मेरी नजर एक छोटे, साधारण से लोहार की दुकान पर पड़ी। वहां का लोहार पारंपरिक ‘भट्टी’—एक पुराना, हाथ से चलने वाला एयर ब्लोअर—का इस्तेमाल कर रहा था। यह दृश्य मुझे मेरे बचपन की याद दिला गया, जब मैं अपने लकड़ी के लट्टू की सुई (स्पिंडल) ठीक करवाने के लिए स्थानीय लोहार के पास जाया करता था, ताकि वह पूरी तरह से घूमे।
उसके हथौड़े की लयबद्ध आवाज़ और भट्टी से उठती लपटों को देखना, एक अद्भुत अनुभव था। यह देख कर याद आया कि कैसे लोहार कच्चे लोहे को सुंदर और उपयोगी वस्तुओं में बदलते हैं। गांव का यह कारीगर—लंबे काले बालों और धूप से झुलसे चेहरे वाला—हर धातु के टुकड़े में जैसे जान फूंक देता था।
भट्टी, जो कि एक हारमोनियम की तरह काम करती है, को अब धीरे–धीरे इलेक्ट्रिक ब्लोअर ने बदल दिया है। लेकिन अजय विश्वकर्मा जैसे कुछ लोहार, जो पिछले 25 वर्षों से अपने पारिवारिक पेशे को निभा रहे हैं, आज भी इस पुराने उपकरण
का प्रयोग करते हैं। अजय छोटे कृषि उपकरण जैसे कुल्हाड़ी, दरांती, फावड़ा और कांसे, बनाते और मरम्मत करते हैं, जिन्हें वे स्थानीय बाजारों में सस्ते दामों पर बेचते हैं।
लोहार का काम परंपरा और कौशल का मेल होता है, जिसमें लोहे, स्टील, तांबे और पीतल जैसी धातुओं को आकार देकर रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुएं—कील, बोल्ट, हथौड़े, तलवारें, और खेती के उपकरण—बनाए जाते हैं। उनका यह हुनर विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है, जहां कभी वे घोड़ों की नालें बनाते थे और जीवन के लिए जरूरी उपकरण तैयार करते थे।
उनकी दुकान, जो 1932 से एक पारिवारिक व्यवसाय रही है, लोहारों की मेहनत और समर्पण का प्रतीक है। उत्तर प्रदेश में लोहारों (विश्वकर्मा) का एक बड़ा समुदाय है, जिन्हें हिंदू परंपरा में विश्वकर्मा, शर्मा, पंचाल या कर्मकार जैसे नामों से जाना जाता है।
एक लोहार का जीवन कठिन मेहनत और सादगी से भरा होता है। हर सुबह वे अपने काम की नई शुरुआत करते हैं, अपना दिल और पसीना उसमें लगाते हैं, और रात को चैन की नींद सोते हैं, यह जानते हुए कि उन्होंने अपने दिन की शांति ईमानदारी से अर्जित की है।
चित्र में: लोहार अजय विश्वकर्मा अपनी दुकान में लगन से काम करते हुए।
एक अन्य चित्र में रांची की मुख्य सड़क पर स्थित एक छोटी और तंग लोहार की दुकान।
लेख और चित्र: अशोक करन
ashokkaran.blogspot.com
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