कोलकाता के रिक्शा चालकों को सलाम

 

कोलकाता के रिक्शा चालकों को सलाम
लेखक: अशोक करन
ashokkaran.blogspot.com

अगर
आप कभी कोलकाता की
गलियों में पैदल चलें,
तो एक दृश्य आपको
अंदर तक झकझोर देगासंकरी गलियों और भीड़भाड़ वाली
सड़कों पर आदमी खुद
से खींचने वाले हाथ रिक्शा
खींचते नज़र आएंगे। यह
सदियों पुरानी प्रथा उपनिवेशकाल की याद दिलाती
है, जब ज़मींदारों और
ब्रिटिश अधिकारियों को गरीब मज़दूरों
द्वारा खींचे जाने वाले रिक्शों
या पालकियों में सफर कराया
जाता था।

इन रिक्शा चालकों में से अधिकांश
बिहार और ओडिशा से
बेहतर जीवन की तलाश
में कोलकाता आए थे। लेकिन
शिक्षा और आर्थिक संसाधनों
की कमी ने उन्हें
ऐसी कठिन और श्रमसाध्य
नौकरी में धकेल दिया,
जहाँ सूरज उगने से
लेकर देर रात तक
भारी सामान और यात्रियों को
खींचना उनकी नियति बन
गईवो भी बिना
पर्याप्त भोजन या आराम
के।

इनका
पहनावा? फटे हुए कुर्ते,
रंग उड़े लुंगी और
नंगे पाँव चलने की
हिम्मत। इनका घर? अगर
हो तो फुटपाथ, रेलवे
प्लेटफॉर्म या किसी पार्क
में पेड़ के नीचे।
कभीकभी तो ये
अपने ही रिक्शे के
नीचे सो जाते हैं।

कोलकाता
यात्रा के दौरान मैंने
इनकी ज़िंदगी पर एक फोटो
फीचर बनाने का निश्चय किया।
जो कुछ मैंने देखा
और कैमरे में कैद किया,
वह सिर्फ़ कठिनाइयाँ नहीं थींवो
संघर्ष में छिपी गरिमा,
दबाव में टिके रहने
की दृढ़ता और हर हाल
में मानवता की झलक थी।

इतिहास
में यह परिवहन का
साधन केवल कोलकाता तक
सीमित नहीं था। शिमला
में भी ब्रिटिश शासनकाल
में इसी तरह के
हाथ से खींचे जाने
वाले रिक्शा चलते थे, जिनमें
चार आदमी एक अंग्रेज़
अधिकारी को खींचते थे।
कोलकाता को यहतोहफा
उपनिवेशकाल से विरासत में
मिला, जो आज भी
भारत के जटिल अतीत
की जीवंत याद दिलाता है।

आज भी लगभग 18,000 हाथ
से खींचे जाने वाले रिक्शा
कोलकाता में चल रहे
हैंकई बिना लाइसेंस
के। आधुनिकता की ओर बढ़ते
हुए इलेक्ट्रिक रिक्शा और ऑटो के
प्रयासों के बावजूद, यह
गहराई से जमी हुई
हकीकत अब तक पूरी
तरह समाप्त नहीं हो पाई
है।

इस मेहनत को भारतीय सिनेमा
में भी जगह मिली।
बिमल रॉय की 1953 की
क्लासिक फ़िल्म दो बीघा ज़मीन में अभिनेता बलराज
साहनी ने एक रिक्शा
चालक की भूमिका निभाई,
जो ऋण चुकाने के
लिए कोलकाता आता है। इस
किरदार को वास्तविकता देने
के लिए साहनी महीनों
रिक्शा चालकों के साथ रहे,
उन्हीं जैसे कपड़े पहने
और नंगे पाँव रिक्शा
खींचना सीखा।

इनकी
कहानी हिम्मत, पीड़ा और मौन संघर्ष
की कहानी है। आइए, हम
कोलकाता के इन अनसुने
नायकों को नज़रअंदाज़
करेंइनके परिश्रम को
सम्मान दें और इनके
लिए एक अधिक सम्मानजनक
जीवन की दिशा में
सोचें।

कृपया
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साझा करें और जागरूकता
फैलाएं।

Text and Photos by-
Ashok Karan,

Ashokkaran.blogspot.com,

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